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जिंदगी की दहलीज़ पर हाथ थामे खड़े हैं

लड़कपन की खुशियाँ जिनके संग बांटी
जवानी की सुबह की ठिठुरन काटी
आज दोस्त वो सारे दिल तोड़ चले हैं
हमेशा के लिए मुंह मोड़ चले हैं।

कभी वक्त के लिए यूँ ही झगड़ते थे हम
वक्त मिलने पर होती थी बातें ही कम
कभी दिल से मजबूर एक दूजे से लड़े हैं
जिंदगी की दहलीज़ पर हाथ थामे खड़े हैं।

सहारा दिया था इन्होने साथ तलाशती निगाहों को
हमेशा ही रोशन किया धुप्प अँधेरी राहों को
शरीर हैं छोटे पर दिल बहुत बड़े हैं
जिंदगी की दहलीज़ पर हाथ थामे खड़े हैं।

आज आँखों पर किसी का बस नहीं है चल रहा
आंसुओं के संग उम्मीद का दिया भी है जल रहा
जज्बात हैं नाजुक पर सीने कड़े है
जिंदगी की दहलीज़ पर हाथ थामे खड़े हैं।

इस चारदीवारी में काटी हैं हमने रातें
अनजान लोगों की अनगिनत बातें
हर एक ईंट पर हमारे किस्से पड़े हैं
जिंदगी की दहलीज़ पर हाथ थामे खड़े हैं।

नहीं जानते हम, कल मिलेंगे या नहीं
पर एक दूसरे के दिल में रहेंगे तो सही
कल की सचाई पर उम्मीद के नगीने जड़े हैं
जिंदगी की दहलीज़ पर हाथ थामे खड़े हैं।

आज तय कर लिया हमने, साथ नहीं छोड़ेंगे
खुशियाँ ही नहीं गम भी सारे ले लेंगे
आज वक्त के साथ हम भी जिद्द पर अड़े हैं
जिंदगी की दहलीज़ पर हाथ थामे खड़े हैं।

अब जब वक्त आया है जुदा होने का
तो जी करता है फूट फूट कर रोने का
याद रखना हमे, हम वक्त के साथ जिद्द पर अड़े थे
जिंदगी की दहलीज़ पर हाथ थामे खड़े थे।

I wrote this over 8 years back. For the last day of the school. Those were happy times. Innocent times. Without the blemishes of jobs, careers, relationships, alcohol, drugs, cinema and war. All you needed was your ice cream, your cartoon serial on TV and your friends at school.

Published in Musings

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